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परम पूज्य श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज


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श्री स्वामी जी की जीवन-यात्रा

( बाल्यकाल )

मेरा जन्म विक्रमी सम्वत् 1918 (तद्नुसार शुक्रवार 26, अप्रैल सन् 1861) की चैत्र पूर्णमासी को एक मुहयाल ब्राह्मण के घर हुआ। जन्म का समय पांच बजे प्रातःकाल था। मेरा जन्म स्थान रावलपिंडी जिले का एक छोटा सा ग्राम 'जग्गू का मोरा' (पश्चिमी पंजाब, पाकिस्तान) है। परन्तु मेरा पालन-पोषण जम्मू राज्य में, जेहलम नदी के निकट (नाना के पास) ‘अंकरा' नामक ग्राम में हुआ। मेरी स्मृति से पूर्व ही मेरे माता-पिता का शरीर शान्त हो गया था। इस कारण मेरा पालन-पोषण मामा के घर ही होता रहा। मैं अपनी माँ का अकेला पुत्र था। मुझे अपने माता-पिता की आकृति स्मरण नहीं। हाँ, मुझे दादी से मिलने की एक बार की याद है । नाना के यहां मुझे लक्ष्मण कह कर पुकारते थे। दादा के यहां दूसरा नाम था गोविन्द । माता-पिता के प्यार का मुझे स्मरण नहीं। मेरे लिये तो मामा-मामी ही सब कुछ थे। इतना अवश्य बताया था कि मैं अपने माता-पिता की बड़ी आयु में पैदा हुआ था।

मेरी नानी ने कोई छह वर्ष तक मुझे पाला। फिर वह भी चोला छोड़ गई। इस समय मेरी आयु कोई 10 वर्ष थी। अब मेरा संसार में कोई नहीं रहा। कुछ वर्ष इधर-उधर भटकते हुये पलता रहा।

मेरा यह समय अत्यन्त कष्ट में तथा रुल-खुल कर बीता । पुराने संस्कारों और प्रारब्ध अनुसार मुझे साधु-संन्यासियों की संगति मिल गई। फिर भी प्रयास यही रहा कि विद्वानों से स्थान-स्थान पर जाकर संस्कृत का अध्ययन करूं।

( जैन यति )

जब मैं 17 वर्ष का था तो मुझे जैन साधुओं की संगति प्राप्त हुई। उनके उपदेश से मैंने घर त्याग कर उनके साथ रहना आरम्भ कर दिया। साधक की अवस्था में जैन मुनियों के संग में एक वर्ष तक रहा। जब मेरी आयु 19 वर्ष की थी, मैं जैन यति बन गया। जैन यति की अवस्था में मैंने जैन-ग्रन्थों का खूब मनन किया। मैंने श्री सोहन लाल जी (जैन मुनि) से प्रायः सभी जैन ग्रन्थ अध्ययन कर लिये थे। मेरी स्मरण- शक्ति बहुत अच्छी थी, इसलिये जैन-ग्रन्थों के समझने में मुझे कुछ भी कठिनाई नहीं होती थी। मुझे पढ़ाकर श्री सोहन लाल जी बहुत प्रसन्न हुआ करते थे। मैं उनका कृपा-पात्र समझा जाता था।

जब मैं 29 वर्ष का हुआ तो मुझे एक छोटा सा ग्रन्थ 'अध्यात्म - चिकित्सा' नामक पढ़ने का अवसर मिला। उसमें आध्यात्मिक चिन्तन और योग के सम्बन्ध में कई एक साधन लिखे हुये थे । अभ्यासी के लिये जहाँ अन्य अनेक साधन उसमें लिखे हुये थे, वहाँ यह भी साधन वर्णित था कि अभ्यासी के लिये आवश्यक है कि परमेश्वर में विश्वास करे, उसे सर्वत्र विद्यमान, सर्वशक्तिमान, सच्चिदानन्द स्वरूप माने। मुझे इस साधन में बड़ी कठिनाई प्रतीत हुई। मैं यह तो चाहता था कि उस पुस्तक के अनुसार अभ्यास करूं, परन्तु मुझे ईश्वर पर विश्वास नहीं था। उसके अस्तित्व के विरुद्ध मैं युक्तियां बहुत दिया करता था, पर अभ्यास की लगन ने अन्त में मुझे प्रभावित कर लिया। मैंने अपने आपको इस प्रकार सन्तुष्ट किया कि अभ्यास-काल में ईश्वर विषय में मौन रहूंगा, उसके सम्बन्ध में मैं वाद-विवाद नहीं करूंगा । ऐसे नियम के साथ मैंने अभ्यास करना आरम्भ कर दिया। उन दिनों में मेरा चतुर्मास लुधियाना नगर में था।

अभ्यास रात के समय मैं किया करता था। अभ्यास के समय मुझे अनेक अलौकिक बातें प्रतीत होने लग गईं जिससे मेरा विश्वास बढ़ गया और मुझे आप ही आप ईश्वर में श्रद्धा हो गई। मुझे पूर्ण विश्वास हो गया कि परम-पुरुष अवश्यमेव है। तब से मैंने दृढ़ संकल्प कर लिया कि अब मैं जैन-मत को त्याग दूंगा। इस मत में ईश्वर विश्वास नहीं है

इस कारण मैं इसका प्रचार और समर्थन नहीं करूंगा। पहले मुझे ईश्वरवाद के विरुद्ध चर्चा-वार्ता करने का अधिक चाव हुआ करता था। जब भी कोई ईश्वरवादी मिल जाता, मैं उससे भिड़ जाया करता और तर्क से उसे निरुत्तर करने का यत्न किया करता, परन्तु ईश्वर विश्वास की हृदय-भूमि में जड़ जम जाने से मुझे अपना सारा तर्क- जाल बड़ा बोदा दीखने लगा, अपनी सभी युक्तियां सार-रहित जान पड़ीं, अपने अनीश्वरवाद के विचार मानस विकार प्रतीत होने लगे और अपने उस समय के मन्तव्य निर्मूल और मिथ्या दिखाई दिये। साथ ही साथ जैन धर्म के आत्मवाद, मुक्तिवाद, स्वर्ग, नरकवाद तथा कर्मवाद से मेरा निश्चय उठ गया। मुझ को ऐसा प्रतीत होने लगा कि ईश्वर भावना के आते ही मेरा सारा मतवाद का कोट आप ही आप धराशायी हो गया। है। मेरे मतवाद की माला के सारे मनके बिखर गये हैं। मेरी विचारधारा का प्रवाह सर्वथा बदल गया है। मेरे तर्क-प्रमाण निरे प्रपंच हो गये हैं और मेरी मानी हुई धर्म-धारणा आमूलचूल हिल गई है। अभ्यास करने से मुझे ईश्वर कृपा का जो भी प्रसाद प्राप्त हुआ वह यद्यपि बहुत थोड़ा · था, परन्तु उसका उत्तम फल यह हुआ कि मैं पूरा आस्तिक बन गया और अधिक अभ्यास की मुझमें जिज्ञासा व लगन उत्पन्न हो गई। इस जिज्ञासा और लगन की भूख ने मुझे व्याकुल कर दिया। रात-दिन मैं यही सोचने लगा कि इस सम्प्रदाय को छोड़कर जितना भी शीघ्र हो सके मैं हरिद्वार आदि धामों में जाकर सन्त-जनों से भगवदाराधना के साधन सीखूं तथा साधन करके आत्म-तृप्ति प्राप्त करूं। अपने हृदय का यह भेद मैंने अपने मित्र साधुओं पर प्रकट कर दिया।

स्नेह-सम्बन्ध तथा मैत्री भाव जैन-मुनियों ने उस समय जो प्रदर्शन किया वह मेरे लिये सदा स्मरण रखने की बात है। प्रेमवश मुझे उन्होंने यह भी कहा कि यहां तू गुरु माना जाता है, सेठ साहूकार आकर तेरे पैरों पर सिर रखते हैं। इतनी पूजा और प्रतिष्ठा तुझे प्राप्त है, जो सहज से प्राप्त नहीं हो सकती। इस कारण तुझे जैन-सम्प्रदाय का त्याग नहीं करना चाहिये। ऐसा करना बुद्धिमत्ता का भी काम नहीं है और धर्म तो अपनी मन की भावना से सम्बन्ध रखता है। मन में तू जैसा चाहे वैसा मानता रह, परन्तु व्यवहार में जैन यति ही बना रह। एक डेरे वाले यति ने मुझे यह भी कहला भेजा कि यदि त्याग वृत्ति आप छोड़ते हैं तो हमारे स्थान में आ जाइये। इस स्थान की बड़ी सम्पत्ति है। उसका उत्तराधिकारी मैं आप को बना देता हूँ। मैंने धन्यवाद के साथ उनका कथन भी अस्वीकार कर दिया |

मेरे ईश्वर सम्बन्धी विचार वैदिक विचारों से मिलते थे। इस कारण मैंने यही निश्चय किया कि मैं जैन-मत को छोड़कर आर्य समाज में प्रवेश करूँ, जिससे अपने पुरातन धर्म को समझ कर फिर किसी एकान्त स्थान में आराधना, साधना में जीवन व्यतीत करूं । मैंने भली- भाँति सोच विचार कर जैन-मत छोड़ने की तिथि निश्चित कर ली |

सम्वत् 1948 (सन् 1891), दिसम्बर 28 को मलेर कोटला (पंजाब) नगर में जब मेरी आयु के 30 वर्ष समाप्त हो चुके थे, मैं जैन-मत को छोड़कर, जैन यतियों से बड़े प्रेम और कृतज्ञता के साथ पृथक हो गया। उन मुनियों के उपकार मैं आज भी हार्दिक धन्यवाद के साथ स्मरण करता हूँ।

( आर्य समाज में प्रवेश तथा संन्यास )

ज्योंही मैं जैनधर्म-स्थान को छोड़कर बाहर आया तो मलेरकोटला के सनातनधर्मियों और आर्यसमाजियों ने मिलकर बड़े समारोह से मेरा स्वागत किया। उन दिनों वहां आर्य समाज का वार्षिकोत्सव मनाया जा रहा था। उस उत्सव में ही यज्ञ मण्डप में मैंने संन्यास-दीक्षा ग्रहण कर ली। तद्नन्तर मैं जालन्धर नगर में आ गया। वहां आने का विचार मैंने इसलिये किया था कि मैं वहां रहकर वैदिक साहित्य में स्नान करके फिर किसी तीर्थ-धाम में जाकर जप आराधना करूंगा। आर्य-समाज में मेरा सम्पर्क महात्मा मुन्शीरामजी से हुआ। वे मुझे प्रातः भ्रमण के लिये साथ ले जाया करते थे। व्यायाम करना भी मैंने प्रारम्भ कर दिया। आर्य समाज के उत्सवों में मैं प्रवचन भी करने लग गया। उन दिनों प्रायः उपनिषदों पर ही बोलता था। कालान्तर में मैंने दस उपनिषद् विधिपूर्वक पढ़े। वेदान्त सूत्र भी शंकर भाष्य सहित पढ़े।

एक निकटवर्ती सेवक के अनुसार श्री महाराज जी जब महाभारत, रामायण तथा वैदिक प्रसंगों पर कथा करते थे तो सहस्त्रों लोग बिना ध्वनिवर्द्धक यंत्र (Loud speaker) के उनकी ऊंची तथा मीठी वाणी सुनते थे। शास्त्रार्थ में वे बड़े-बड़े विद्वानों को परास्त कर देते थे। ऐसे वैदिक प्रचार दीर्घ काल तक (25 वर्ष) भ्रमण करके करते रहे। इस बीच एक सुन्दर पुस्तिका, 'ओंकार उपासना' नाम से भी लिखी और भी ग्रन्थ लिखे - सत्य 'उपदेशमाला', 'आर्यसामाजिक-धर्म', 'सन्ध्या-योग', 'ईश्वर - दर्शन' और 'दयानन्द - वचनामृत' विशेषतः 'श्री दयानन्द प्रकाश' बड़ी खोज तथा पर्यटन के उपरान्त बड़ी सुन्दर एवं ललित भाषा में लिखी, जो माननीय है।

ऐसा प्रतीत होता है कि इसी बीच आध्यात्मिक पिपासा ने उन्हें अतिशय विह्वल कर दिया जिसके फलस्वरूप उन्होंने गंगा किनारे अनेक संतों और महात्माओं से सम्पर्क किया, परन्तु कहीं भी उन्हें यथेष्ट साधना प्राप्त नहीं हुई । अन्ततः सन् 1925 में ऋषि दयानन्द जन्म शताब्दी महोत्सव के समय एकान्तवास करने की आन्तरिक प्रेरणा हुई। तदनुसार उन्होंने हिमालय के डलहौजी नामक स्थान पर, जो निर्जन था, एकान्त जीवन बिताते हुये कुछ काल तक अनवरत साधना की। उनका श्री मुख वाक्य है- 'मैंने संकल्प किया कि जब तक मुझे परम प्राप्ति नहीं हो जाती, तब तक मैं इस स्थान पर एकाग्रचित्त बैठा रहूंगा।'

( साक्षात्कार )

मुझे उस स्थान पर साधना करते हुये एक मास बीत गया तो, 7 जुलाई, 1925 व्यास - पूर्णिमा के दिन, जब मैं आँखें बन्द किये प्रार्थना करने में निमग्न था तो मुझे 'राम' शब्द बहुत ही सुन्दर और आकर्षक स्वरों में सुनाई दिया। मैंने समझा कि कोई प्राणी इधर-उधर राम-नाम का उच्चारण कर रहा है। आँखें खोलीं और चारों ओर देखा तो कोई भी दृष्टिगोचर नहीं हुआ। फिर आँखें बन्द कीं तो उसी मधुर स्वर में 'राम', 'राम' शब्द सुनाई दिया। साथ ही आदेशात्मक शब्द आया राम भज, राम भज, राम-राम ।

मैंने प्रथम उसे विघ्न समझा, किन्तु वह साधारण शब्द तो था नहीं, के पधारने पर जिस प्रकार इस लोक में होता है। किसी विशेष महापुरुष जैसे लौकिक साधारण पुरुष सभा मंच से उठ जाते हैं, इसी प्रकार मेरा हाल था। सारे शरीर में कम्पन हुआ | मेरे प्रार्थना करने पर वह शब्द पुनः आया और फिर दर्शन की मांग करने पर प्रश्न हुआ— "किस रूप का दर्शन चाहते हो" ? तो मैंने कहा जो तेरा रूप हो, मैं क्या बताऊँ ? तब यह 'रा' और 'म' अक्षरमयी 'राम' रूप, तेजोमयी, दर्शन हुआ।

उस समय ये विचार आये कि भगवान ही युग-युग में गुरु-रूप धारण करते हैं और आस्तिकवाद को बनाये रखते हैं। इसलिये परम गुरु राम ही हैं (अतः श्री स्वामी जी ने परमात्मा श्री राम ही को परम गुरु स्वीकारा और आगे 'परम गुरु जय जय राम' गाया)। क्योंकि वे देशकाल से भी परे हैं। मानवी गुरु अथवा अवतार तो देश-काल में ही रहते हैं। वह सर्वत्र व्याप्त है । मुझमें नाम की प्राप्ति जिस धाम से हुई है, उसके लिये मेरे अन्दर बड़ी कृतज्ञता है। मैं चाहता हूँ कि मेरे जीवन में जितना हो सके, उसका विस्तार कर सकूं।

पहले मैं राम नहीं जपता था। हां, बचपन में कभी जपता था। अब राम-कृपा अवतरण के पश्चात् मेरे में इतनी शक्ति आ गई थी कि चलते समय ऐसा प्रतीत होता था कि पांव के नीचे धरती कांप रही है। (एक सेवक के अनुसार जब राम-नाम की साधना करते-करते श्री महाराज जी का अन्तरात्मा श्री राम-नाम के साथ एकीभूत हो गया तो परिपक्व आस्तिक भावना, पूर्ण योग, सिद्धियों तथा संन्यस्थ-जीवन से इस साधना में तीव्र शीघ्रता के साथ आध्यात्मिक उपलब्धियां होने लगीं। एक गोपनीय पुस्तक, 'अंकित संस्मरण' से प्रतीत हुआ कि श्री महाराज जी को उसी वर्ष 'राम-कृपा अवतरण' का आभास हुआ। सर्व सिद्ध होने पर श्री महाराज जी ने सन् 1928 से राम-नाम दान बड़े सेवा- भाव से आरम्भ किया) ।

श्री स्वामी जी ने अनेक ग्रंथ जैसे- भक्ति-प्रकाश, वाल्मीकीय रामायण-सार, श्रीमद्भगवद्गीता, एकादशोपनिषद् संग्रह, प्रार्थना और उसका प्रभाव, उपासक का आन्तरिक जीवन, भक्ति और भक्त के लक्षण, स्थितप्रज्ञ के लक्षण, भजन एवं ध्वनि संग्रह तथा अमृतवाणी की रचना की। उनके प्रवचनों का संकलन प्रवचन- पीयूष नामक पुस्तक में है।

( आर्य समाज से किनारा )

भक्ति- प्रकाश में परमेश्वर का 'राम' नाम द्वारा वर्णन तथा गुणगान है । इस पर आर्य समाज के प्रबन्धकों ने विरोध किया और श्री महाराज जी को कहा कि 'भक्ति- प्रकाश' में 'राम' शब्द के स्थान पर 'ओम्' लिखकर दुबारा छपवायें। श्री महाराज जी ने उत्तर में कहा 'मैं 'राम' को नहीं छोड़ सकता तथा आर्य समाज से किनारा करता हूँ।'

( सेवा भाव से नाम दान )

इधर हांसी के इलाके में मैं बहुत घूमा हूँ, क्योंकि एक-एक व्यक्ति को दीक्षा देने के लिये मैं कई-कई कोस जाता था। जहां मैं ठहरता था वहां रात को बोला भी करता । लम्बा समय भी लग जाता था। अब तो मैंने प्रवचन के लिये अपने पर, आप से ही, 20 मिनट की रोक लगा रखी है। उस समय कोई रोक न थी।

(श्री महाराज जी ने आर्य समाज से किनारा करके कोई नया मत नहीं चलाया। 'राम' मन्त्र की प्राप्ति से उन्हें अभूतपूर्व शान्ति की अनुभूति हुई। उन्होंने निश्चय किया कि प्रभु कृपा से प्राप्त इस 'राम' महामंत्र के प्रसाद को त्रितापों से तप्त मानवों में वितरित करूँगा । आप सम्प्रदाय, जाति भेद तथा मत-मतान्तर की संकुचित सीमाओं को अस्वीकार कर मानव मात्र के प्रति करुणामय होकर इस बीज मंत्र का प्रसाद बांटते रहे। अपनी-अपनी स्थिति अनुसार सब ने इससे लाभ लिया) ।

उस समय यह 20 मिनट ध्यान में बैठने का कोई नियम नहीं था। एक सज्जन ने पूछा, 'ओम् नाम को सब बड़ा बताते हैं पर आपके राम-नाम से हमें तो बड़ा लाभ है।' महाराज जी ने उत्तर दिया- "यह आर्य समाजियों ने चलाया, बनाने से बना। अरब में जाओ तो वहां तो लोग अल्लाह ही नाम पुकारें। क्रिश्चियन उनमें ऐसा नहीं कि ऊंची कोटि के आदमी न हों, पर वे तो गॉड का नाम ही लेकर पूजन करें। मुझे इससे कोई सम्बन्ध नहीं। नाम से क्या अभिप्राय ? तो नाम जिस पदार्थ की ओर संकेत करता है उससे है" ।

( साधना-सत्संग )

दीक्षित साधकों की उन्नति का ध्यान करके श्री महाराज जी ने साधना-सत्संग लगाने आरम्भ किये। कोई चार-पांच दिन के लिये साधक सारे सांसारिक सम्बन्धों से परे हटकर साधना करें जिससे उनकी उन्नति हो, मार्ग की बाधायें दूर हों और वे अपना जीवन साधनामय बना लें तथा जीवन में साधना की छाप लगाकर, साधारण जनसमाज से ऊँचा उठकर सब को उन्नत करने का सामर्थ्य उनमें जाग्रत हो। श्री महाराज जी कहते हैं, कि 'बहुत लम्बी आयु होने से मेरे अच्छे-अच्छे साथी चले गये, जिस से जीवन में कुछ उदासीनता आ गई। पाकिस्तान बनने पर जो कुकृत्य हुये, उन्हें देखकर उदासीनता बढ़ गई, किन्तु अब कुछ अच्छे साधक और जिज्ञासु मिलने से जीवन अच्छा लगने लगा है। मेरा समय साधना-सत्संगों में बहुत अच्छा कटता है।'

( शुभ-मंगल के लिये )

कुछ व्यक्ति ऐसे हैं जिन पर इस देश का भविष्य निर्भर है। उनके बारे में समाचार पढ़कर उनके स्वास्थ्य और मंगल के लिये, उनकी देश-विदेश यात्रा में सुरक्षा के लिये उनके शुभ कार्यों में सफलता के लिये मैं भगवान से प्रार्थना करता हूँ और कामना करता हूँ कि देश-हित में भगवान उन्हें सुमति दे। फिर देश में या देश से बाहर जब कोई दुर्घटना होती है तो जो दुर्घटनाग्रस्त हो जाते हैं, उनके कल्याणार्थ भी मैं प्रार्थना करता हूं।

( अस्वस्थता )

कुछ दिनों से घुटने में दर्द रहा करता । हरिद्वार साधना-सत्संग में नीचे से ऊपर चढ़ने में आध-आध घण्टा लग जाता। घुटने में चीस थी। खाना भी न खाया जावे। अलग से उबली सब्जियां बनाकर ऊपर ही कमरे में साधक ले आते। सब के साथ नीचे नहीं जाया करता । शौच आदि में भी कष्ट होता । डॉक्टर ने सारी अवस्था की जाँच की। हृदय जाँच भी हुई। डॉक्टर को एक साधक पैसे देने लगा तो वह बोला, मेरे पिताजी स्वामी जी के पास बैठा करते हैं, मैं पैसे नहीं लूंगा। उसकी पहली ही औषधि का सफल प्रभाव हुआ। अब एक निरोधक (Preventive) औषधि भी दे रहे हैं।

( अन्तिम दर्शन )

महाप्रयाण से एक सप्ताह पूर्व श्री महाराज जी ने अपनी चेतना को अन्तर्मुखी कर लिया था । उनको इस स्थिति में देखकर डॉक्टर ने उन्हें सम्बोधित करके पूछा, 'महाराज जी, आप को क्या हो गया है ?' श्री महाराज जी ने आँखें खोलीं और डॉक्टर की ओर देखकर खिलखिला कर हँस पड़े और यह हँसी बहुत देर तक उनके मुखारविन्द से नहीं हटी। फिर डॉक्टर को यह विचार हुआ कि कहीं श्री महाराज जी को पक्षाघात (Paralysis) तो नहीं हो गया। डॉक्टर ने आग्रह किया, 'महाराज जी, थोड़ा दायां हाथ ऊपर उठाइये।' श्री महाराज जी ने तुरन्त दायां हाथ उठाकर डॉक्टर के हाथ से मिलाया। फिर वैसे ही डॉक्टर के कहने पर बांया हाथ भी ऊपर उठा दिया। यह देखकर सब चकित हो गये और डॉक्टर भी मूक हो गया। फिर उन्होंने उन्मुक्त हंसी की छटा बिखेरी और पूर्ववत् अन्तर्मुख हो गये।

श्री प्रेम जी कहने लगे कि श्री महाराज जी प्रायः बांईं करवट से लेटते रहे हैं। सम्भवतः ऐसा करने से उन्हें आराम मिलेगा। जैसे ही श्री महाराज जी को बांईं करवट लिटाया तो उन्होंने अपना दायां हाथ श्री प्रेम जी के कन्धे पर रखा और अपने अति निकटतम करने की चेष्टा की।

रविवार, 13 नवम्बर 1960 (नवमी/दशमी, सम्वत् 2016), रात के आठ बजे श्री महाराज जी बड़े वेग से नाम जप करने लगे। जो कुछ धीमे स्वर में सुनाई भी देता था। ठीक दस बजे रात्रि श्री महाराज जी ने आँखें खोलीं और हाथ के संकेत से सब को आशीर्वाद देकर यह भौतिक चोला (दिल्ली में ) छोड़ दिया।

श्री महाराज जी अपना कोई स्मारक नहीं चाहते थे। वे चाहते थे राम से साधकों का सीधा सम्बन्ध । अतः महाराज जी के दिव्य शरीर को हरिद्वार ले जाया गया। श्री राम शरणम्, हरिद्वार में संन्यास परम्परा के अन्तर्गत स्नान आदि तथा लेपन आदि कराके और नवीन वस्त्र पहना कर एक बड़े ही सुन्दर अलंकृत हिंडोले में शंख, घण्टे, घड़ियाल तथा बाजों के साथ जलूस निकाला गया। जिसमें हजारों साधक हिंडोले को उठाकर नील-धारा ले गये और वहां श्री महाराज जी के पार्थिव शरीर को जल प्रवाह किया गया।

Temple

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Pandit

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Puja

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